सोंधी सी महक

सोंधी सी महक


बात बहुत पुरानी है, शायद 12/13 साल पुरानी
उन दिनों मेरी पोस्टिंग पूह (किन्नौर) में थी। वेस्टर्न कमांड जो की चंडीगढ़ के नजदीक है वहां ब्रिगेडियर साहब ने तलब किया था मुझे, हम लोग सुबह पांच बजे यूनिट द्वारा अलॉट की हुई जिप्सी द्वारा चल कर शाम को करीब 7/8 बजे चंडी मंदिर स्थित ऑफिसर्स मेस पहुंचे।
पूह के ठंडे माहौल से चंडीगढ़ का गर्म मौसम बहुत सुहाना था, अक्टूबर का महीना जहां पूह में रात का तापमान जीरो से कई डिग्री नीचे रहता वहां पर चंडीगढ़ का 15/16 डिग्री किसी वरदान से कम नहीं था।
तुरत फुरत नहा धो कर मेस पहुंचे और व्हिस्की के दो दो पेग गले से नीचे उतार कर में और मेरा साथी लेफ्टिनेंट सीधा खाने पर टूट पड़े, वैसे भी खाना खाए 7/8 घंटे हो गए थे।
रात आराम से सो कर सुबह 8 बजे ब्रिगेडियर साहब के ऑफिस पहुंच गए, जहां उन्होंने हमें कुछ सामरिक और बाकी सभी बातों के बारे में रिपोर्ट हेतु बुलवाया था। करीब 11 बजे मीटिंग समाप्त करके निकले ही थे कि यूनिट से वायरलेस पर खबर मिली। मौसम खराब हो रहा है और हल्की बारिश पड़नी शुरू हो गई है। ऐसे में आसार हैं की शायद आज रात तक या कल दिन में बर्फ पड़ने की संभावना है।
बर्फ गिरने का मतलब था कुछ 5/6 दिनों के लिए रास्ता बंद हो जाना, जिसका साफ संकेत था की हमें तुरंत ही अपनी यूनिट के लिए रवाना होना होगा वरना अगले पूरे हफ्ते यूनिट पर कोई सीनियर ऑफिसर नहीं रहेगा।
वैसे भी खराब मौसम में दुश्मन की गतिविधियां बढ़ जाती है।
मैने तुरंत ब्रिगेडियर साहब को आगाह किया और बिना समय गंवाए वापसी के लिए रवाना हो गए। शाम करीब 3 बजे हम दोनों ने शिमला के पास खाना खाकर आगे का सफर शुरू किया।
अभी हमें कुछ 280 किलोमीटर का सफर तय करना था और समय कम से कम 7/8 घंटे का था।
मौसम का मिजाज कुछ अच्छा नहीं नजर आ रहा था। कुफरी पहुंचते पहुंचते धीमी धीमी बारिश होनी शुरू हो गई, गुम सुम से मौसम को देख कर कोई भी अनुमान लगा सकता था की जल्दी ही बर्फ पड़ने की संभावना है।
बारिश के चलते हमारी रफ्तार धीमी हो चली थी, ज्यों ज्यों हम आगे बढ़ रहे थे राह में काले काले बादल उमड़ घुमड़ कर धमका रहे थे, कुछ और दूरी तय करने पर बारिश और तेज हो गई और सर्द हवाएं भी चलनी शुरू हो गई, करीब 2/2.30 घंटे में हम लोग नारकंडा पहुंचे, शाम गहराने लगी थी और बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी, जल्दी से पास के होटल से एक चाय और कुछ बिस्कुट लेकर हमने आगे का सफर शुरू किया।

नारकंडा के बाद रामपुर तक सड़क उतरती है, और नीचे सतलुज के पास पहुंच कर आगे का सफर फिर से चढ़ाई वाला होता है। बारिश लगातार हो रही थी, क्योंकि हम थोड़ा कम ऊंचाई की तरफ जा रहे थे तो ठंड का अहसास भी कम हो रहा था। रामपुर तक पहुंचते पहुंचते हमें रात के 8 बज आए थे।
मेरे साथ के लेफ्टिनेंट ने दबी आवाज में पूछा, सर खाना खा लें, पर मुझे समय से यूनिट पहुंचने की जल्दी थी और उसपर ये खतरा यदि पूह के रास्ते में बर्फबारी शुरू हो गई होगी तो कहीं हम बीच रास्ते में ही न अटक जाएं। मैने सख्त आवाज में उसे और अपनी भूख दोनों को दबा दिया, "we can't afford to stop लेफ्टिनेंट, हमें जितना जल्दी हो सके यूनिट तक पहुंचना ही है"
"Yes sir, as you say", कहते हुए उसने जीप को आगे बढ़ा दिया।
जैसे जैसे गाड़ी आगे बढ़ती गई मुझे अपनी गलती का अहसास होने लगा, अब रास्ते में कहीं रुकने और खाने का कोई बंदोबस्त नहीं हो सकता था और ऐसे में अगर बर्फ या लैंड स्लाइड की वजह से हमको रुकना पड़ा तो न मालूम कितने घंटे सड़क पर ही बिताने होंगे।
बस एक ही सहारा था जिप्सी का टैंक हमने पेट्रोल से फुल करवा लिया था, यानी पेट्रोल की कोई समस्या नहीं थी।
रामपुर से करीब 60/70 किलोमीटर दूरी तय करने पर हमें किन्नौर की सर्दियों का पहला तोहफा मिला, जी हां, बर्फ पड़ने लगी थी और चारों तरफ बर्फ के सफेद गाले हवा में लहरा कर बरस रहे थे।
पड़ती बर्फ में गाड़ी की विंडस्क्रीन करीब करीब धुंधली हो जाती है और इस मोड़ भरी ऊंची नीची संकरी सड़क पर गाड़ी चलाना और भी मुश्किल हो जाता है। पर मरता क्या न करता, कुछ भी हो हमें तो आगे बढ़ना हो था, अब रात के करीब 10 बज चुके थे हमारी मंजिल अभी भी करीब 50/60 किलोमीटर दूर थी, बर्फ लगातार पड़ रही थी और पेट में भूख के मारे मरोड़े उठ रही थी, और इस सुनसान बियाबान में दूर दूर तक सिवाय बर्फ के कुछ नहीं दिख रहा था।

अचानक आगे मोड़ के पास सड़क के किनारे हमें एक रोशनी की धीमी सी किरण नजर आई, हमने एक दूसरे को देखा और आंखों ही आंखों में इशारा करके उस छोटी सी झोपडी के पास अपनी जिप्सी रोक दी।
जिप्सी की आवाज सुन कर उस टीन के झोपड़े का दरवाजा खुला और एक गद्दी ( भेड़ चराने वाले बंजारे) महिला ने बाहर झांका, वो एक 50/55 साल की अधेड़ महिला थी जिसके चेहरे पर पहाड़ों के संघर्ष की रेखाएं साफ नजर आ रही थी।
अपनी टूटी फूटी हिंदी में हमारी ओर इशारा कर के  पूछा इस खराब मौसम में कहां जा रहे हो।
हमारी ड्रेस देख कर वो तुरंत समझ गई की हम फौजी हैं।
उसने दरवाजा पूरा खोलते हुए हमारा स्वागत किया और इशारे से हमें अंदर आने को कहा।
अंदर का माहौल बाहर के मुकाबले काफी गर्म और अच्छा था, वैसे भी हम दोनों का सर्दी और थकान से बुरा हाल था।
हमने संक्षेप में उसे समझाया की हम चंडी मंदिर से आ रहे हैं और पूह अपनी यूनिट जा रहे हैं।
उसने आनन फानन में चूल्हे पर पानी चढ़ाया और पूछा बाबू जी चाय पियोगे, हां, हां हम दोनों ने एक साथ कहा।
झोपड़ी में एक तरफ दो तीन बच्चे कपड़ों में लिपटे सो रहे थे वहीं उसका पति, बिना कुछ कहे हुक्का फूंक रहा था। हमको देख कर उसने हल्का सा अभिवादन किया और वापस पूरी तन्मयता से हुक्का पीने लगा।
बाबू जी, रोटी वोटी कुछ खाई की ना, उस महिला ने पूछा।
ना .... ना अम्मा तुम तो बस चाय पिला दो.... तो हम निकलें... बर्फ ज्यादा पड़ने से पहले पहुंच जाएं, मैने झिझकते हुए कहा।
अरे बेटा, हम गरीबों के पास और कुछ है भी ना, तुमको देने को, खा लो शकल से ही भूखे लग रहे तुम दोनों, अभी दो मिनट में बना देती हूं। फिर मौसम का क्या भरोसा... ज्यादा बर्फ पड़ गई तो, वो अधिकार से बोली, और जवाब का इंतजार किए बगैर तवा चढ़ा कर रोटी बनाने लगी.... जाने क्या अधिकार था उसकी आवाज में और कुछ भूख भी, तवे पर सिकती वो मोटी मोटी रोटियों से उठती सोंधी सोंधी खुशबू... हम दोनों में किसी को इनकार करने की हिम्मत न हुई।
बकरी के दूध की गाढ़ी गिलास भर चाय और उस मां के हाथ की मोटी पर प्रेम से भीगी वो सूखी रोटियों में जो स्वाद था.... वो शायद जिंदगी भर मेरी जुबान कभी नहीं भूलेगी।
निकलते वक्त मैंने कुछ पैसे उस महिला को देने चाहे, पर उस ने लेने से साफ इंकार कर दिया, और बोली... साहब हम गद्दी गरीब जरूर हैं पर इतने भी नहीं कि घर आए अपने बच्चों से रोटी के पैसे ले लें। जाओ बेटा देश को तुम्हारी बहुत जरूरत है।
बस जब इधर से गुजरो तो चाय जरूर पीकर जाना......
मेरा सर उस मां के चरणों में नतमस्तक हुए बिना ना रह सका।

समाप्त

आभार – नवीन पहल – १६.०२.२०२३ 💕💕

# प्रतियोगिता हेतु 

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4 Comments

Varsha_Upadhyay

17-Feb-2023 09:37 PM

शानदार

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Abhinav ji

17-Feb-2023 09:11 AM

Very nice 👍

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